Batukeshwar Dutt Biography in Hindi | बटुकेश्वर दत्त की जीवनी
भगत सिंह के साथ असेंबली में बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त की कहानी बताती है कि अपने शहीद क्रांतिकारियों को पूजने वाला यह देश जीते जी उनके साथ क्या सुलूक करता है.
23 मार्च आज शहीद दिवस है. 1931 में 23 मार्च के दिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गई थी. इस दिन प्रधानमंत्री से लेकर आम जनता तक सभी इन शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं. पंजाब के हुसैनीवाला में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि पर फूल चढ़ाए जाते हैं.
इसी हुसैनीवाला में एक और समाधि है. यह आजादी के उस सिपाही की समाधि है जो भगत सिंह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ा था लेकिन, उसे भुला दिया गया. उनके इस साथी का नाम बटुकेश्वर दत्त था. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को लोग फिर भी शहीद दिवस या जन्म दिन के बहाने याद कर लेते हैं लेकिन, बटुकेश्वर दत्त की जिंदगी और उनकी स्मृति, दोनों की आजाद भारत में उपेक्षा हुई है.
परमिट के लिए जब बटुकेश्वर दत्त की पटना के कमिश्नर के सामने पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं.
बटुकेश्वर दत्त भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी थे। बटुकेश्वर दत्त को देश ने सबसे पहले 8 अप्रैल 1929 को जाना, जब वे भगत सिंह के साथ केंद्रीय विधान सभा में बम विस्फोट के बाद गिरफ्तार किए गए। उन्होनें आगरा में स्वतंत्रता आंदोलन को संगठित करने में उल्लेखनीय कार्य किया था।
बटुकेश्वर दत्त की जीवनी - Biography of Batukeshwar Dutt in Hindi
महान क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त (सन 1929 में)
जन्म : 18 नवम्बर 1910
जन्म स्थान : ओँयाड़ि ग्राम, बर्धमान जिला, ब्रितानी भारत
अभिभावक : पिता- गोष्ठ बिहारी दत्त
पति/पत्नी : अंजली दत्त
मृत्यु : 20 जुलाई 1965 (उम्र 54)नई दिल्ली, भारत
राष्ट्रीयता : भारतीय
प्रसिद्धि कारण : भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन
उनका पैत्रिक गाँव बंगाल के 'बर्दवान ज़िले' में था, पर पिता 'गोष्ठ बिहारी दत्त' कानपुर में नौकरी करते थे। बटुकेश्वर ने 1925 ई. में मैट्रिक की परीक्षा पास की और तभी माता व पिता दोनों का देहान्त हो गया। इसी समय वे सरदार भगतसिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद के सम्पर्क में आए और क्रान्तिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन’ के सदस्य बन गए। सुखदेव और राजगुरु के साथ भी उन्होंने विभिन्न स्थानों पर काम किया।
बटुकेश्वर दत्त प्रारम्भिक जीवन
बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में ग्राम-औरी, जिला - नानी बेदवान (बंगाल) में हुआ था। इनका बचपन अपने जन्म स्थान के अतिरिक्त बंगाल प्रांत के वर्धमान जिला अंतर्गत खण्डा और मौसु में बीता। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। 1924 में कानपुर में इनकी भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद इन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना प्रारंभ किया। इसी क्रम में बम बनाना भी सीखा।8 अप्रैल 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान में संसद भवन) में भगत सिंह के साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का विरोध किया। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पर्चों के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था। उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया।
बटुकेश्वर दत्त यूं तो बंगाली थे। बर्दवान से 22 किलोमीटर दूर 18 नवंबर 1910 को एक गांव औरी में पैदा हुए बटुकेश्वर को बीके दत्त, बट्टू और मोहन के नाम से जाना जाता था। हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए वो कानपुर आ गए। कानपुर शहर में ही उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद से हुई। उन दिनों चंद्रशेखर आजाद झांसी, कानपुर और इलाहाबाद के इलाकों में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियां चला रहे थे। 1924 में भगत सिंह भी वहां आए।
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान
देशप्रेम के प्रति उनके जज्बे को देखकर भगत सिंह उनको पहली मुलाकात से ही दोस्त मानने लगे थे। 1928 में जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन चंद्रशेखर आजाद की अगुआई में हुआ, तो बटुकेश्वर दत्त भी उसके अहम सदस्य थे। बम बनाने के लिए बटुकेश्वर दत्त ने खास ट्रेनिंग ली और इसमें महारत हासिल कर ली। एचएसआरए की कई क्रांतिकारी गतिविधियों में वो सीधे तौर पर शामिल थे। जब क्रांतिकारी गतिविधियों के खिलाफ अंग्रेज सरकार ने डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट लाने की योजना बनाई, तो भगत सिंह ने उसी तरह से सेंट्रल असेंबली में बम फोड़ने का इरादा व्यक्त किया, जैसे कभी फ्रांस के चैंबर ऑफ डेपुटीज में एक क्रांतिकारी ने फोड़ा था।एचएसआरए की मीटिंग हुई, तय हुआ कि बटुकेश्वर दत्त असेंबली में बम फेंकेंगे और सुखदेव उनके साथ होंगे। भगत सिंह उस दौरान सोवियत संघ की यात्रा पर होंगे, लेकिन बाद में भगत सिंह के सोवियत संघ का दौरा रद्द हो गया और दूसरी मीटिंग में ये तय हुआ कि बटुकेश्वर दत्त बम प्लांट करेंगे, लेकिन उनके साथ सुखदेव के बजाय भगत सिंह होंगे। भगत सिंह को पता था कि बम फेंकने के बाद असेंबली से बचकर निकल पाना, मुमकिन नहीं होगा, ऐसे में क्यों ना इस घटना को बड़ा बनाया जाए, इस घटना के जरिए बड़ा मैसेज दिया जाए।
8 अप्रैल 1929 का दिन था, पब्लिक सेफ्टी बिल पेश किया जाना था। बटुकेश्वर बचते-बचाते किसी तरह भगत सिंह के साथ दो बम सेंट्रल असेंबली में अंदर ले जाने में कामयाब हो गए। जैसे ही बिल पेश हुआ, विजिटर गैलरी में मौजूद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त उठे और दो बम उस तरफ उछाल दिए जहां बेंच खाली थी। जॉर्ज सस्टर और बी.दलाल समेत थोड़े से लोग घायल हुए, लेकिन बम ज्यादा शक्तिशाली नहीं थे, सो धुआं तो भरा, लेकिन किसी की जान को कोई खतरा नहीं था। बम के साथ-साथ दोनों ने वो पर्चे भी फेंके, गिरफ्तारी से पहले दोनों ने इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद जैसे नारे भी लगाए। दस मिनट के अंदर असेंबली फिर शुरू हुई और फिर स्थगित कर दी गई।
उसके बाद देश भर में बहस शुरू हो गई। भगत सिंह के चाहने वाले, जहां ये साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि बम किसी को मारने के लिए नहीं बल्कि बहरे अंग्रेजों के कान खोलने के लिए फेंके गए थे, तो वहीं अंग्रेज और अंग्रेज परस्त इसे अंग्रेजी हुकूमत पर हमला बता रहे थे। हालांकि बाद में फोरेंसिक रिपोर्ट ने ये साबित कर दिया कि बम इतने शक्तिशाली नहीं थे। बाद में भगत सिंह ने भी कोर्ट में कहा कि उन्होंने केवल अपनी आवाज रखने के लिए, बहरों के कान खोलने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल किया था, ना कि किसी की जान लेने के लिए। लेकिन भगत सिंह के जेल जाते ही एचआरएसए के सदस्यों ने लॉर्ड इरविन की ट्रेन पर बम फेंक दिया।
काला पानी की सज़ा
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी हुई जबकि बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की सज़ा. फांसी की सजा न मिलने से वे दुखी और अपमानित महसूस कर रहे थे. बताते हैं कि यह पता चलने पर भगत सिंह ने उन्हें एक चिट्ठी लिखी. इसका मजमून यह था कि वे दुनिया को यह दिखाएं कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं. भगत सिंह ने उन्हें समझाया कि मृत्यु सिर्फ सांसारिक तकलीफों से मुक्ति का कारण नहीं बननी चाहिए. बटुकेश्वर दत्त ने यही किया. काला पानी की सजा के तहत उन्हें अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल भेजा गया.वहां से 1937 में वे बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना लाए गए. 1938 में उनकी रिहाई हो गई. कालापानी की सजा के दौरान ही उन्हें टीबी हो गया था । लेकिन फिर भी जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने महात्मा गांधी के भारत छोडो अभियान में भाग लिया और फिर से चार साल के लिए जेल गये। मोतिहारी जेल (बिहार के चंपारण जिले में) में उन्हें रखा गया था।चार साल बाद 1945 में वे रिहा हुए. लेकिन उनकी जिंदगी का संघर्ष जारी रहा.
बटुकेश्वर दत्त की अनकही कहानी
भारत को आज़ादी मिलने के बाद, नवम्बर 1947 को उन्होंने अंजलि से शादी कर ली थी। लेकिन आज़ाद भारत ने उन्हें कोई पहचान नही दिलवाई और उन्होंने अपना पूरा जीवन इसके बाद गरीबी बोझ तले बिताया।लेखक अनिल वर्मा बताते हैं, ‘‘बटुकेश्वर दत्त को कोई सम्मान नहीं दिया गया स्वाधीनता के बाद. निर्धनता की ज़िंदगी बिताई उन्होंने. पटना की सड़कों पर सिगरेट की डीलरशिप और टूरिस्ट गाइड का काम करके बटुकेश्वर ने जीवन यापन किया. उनकी पत्नी मिडिल स्कूल में नौकरी करती थीं जिससे उनका घर चला.’’ अनिल बताते हैं कि एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे तो इसके लिए बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया. परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने पेशी हुई तो कमिश्नर ने उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लाने को कहा.
हालांकि बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर जी से माफ़ी मांगी थी. बटुकेश्वर जी का बस इतना ही सम्मान हुआ कि पचास के दशक में उन्हें एक बार चार महीने के लिए विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया. अनिल वर्मा बताते हैं कि बटुकेश्वर दत्त का जीवन इसी निराशा में बीता और 1965 में उनकी मौत हो गई. आज़ादी के साठ साल बाद बटुकेश्वर दत्त को एक किताब के ज़रिए याद तो किया गया लेकिन न जाने कितने ऐसे क्रांतिकारी हैं जिन पर अभी तक एक पर्चा भी नहीं लिखा गया है.
पहचान और उपलब्धियाँ
सफ़दरजंग एअरपोर्ट के पास नयी दिल्ली की एक प्रसिद्ध कॉलोनी को उनके नाम पर बी.के, दत्त कॉलोनी रखा गया था। यह कॉलोनी NDMC एरिया में AIIMS की सबसे करीबी आवासीय कॉलोनी है।बटुकेश्वर दत्त अंतिम समय मृत्यू
1964 में बटुकेश्वर दत्त अचानक बीमार पड़े. पटना के सरकारी अस्पताल में उन्हें कोई नहीं पूछ रहा था. इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा,
'क्या दत्त जैसे कांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है. खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है.'
बताते हैं कि इस लेख के बाद सत्ता के गलियारों में थोड़ी हलचल हुई. तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा और पंजाब के मंत्री भीमलाल सच्चर ने आजाद से मुलाकात की. पंजाब सरकार ने बिहार सरकार को एक हजार रुपए का चेक भेजकर वहां के मुख्यमंत्री केबी सहाय को लिखा कि यदि पटना में बटुकेश्वर दत्त का इलाज नहीं हो सकता तो राज्य सरकार दिल्ली या चंडीगढ़ में उनके इलाज का खर्च उठाने को तैयार है.
इस पर बिहार सरकार हरकत में आयी. दत्त के इलाज पर ध्यान दिया जाने लगा. मगर तब तक उनकी हालत बिगड़ चुकी थी. 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया. यहां पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था जिस दिल्ली में उन्होंने बम फोड़ा था वहीं वे एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाए जाएंगे.
बटुकेश्वर दत्त को सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया. बाद में पता चला कि उनको कैंसर है और उनकी जिंदगी के कुछ ही दिन बाकी हैं. कुछ समय बाद पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन उनसे मिलने पहुंचे. छलछलाती आंखों के साथ बटुकेश्वर दत्त ने मुख्यमंत्री से कहा, 'मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए.'
उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई. 17 जुलाई को वे कोमा में चले गये और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर उनका देहांत हो गया.
बटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा को सम्मान देते हुए उनका अंतिम संस्कार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के पास किया गया.
एक पुरानी कहावत है. जीते को मांड नहीं और मरे को खांड. लेकिन बटुकेश्वर दत्त के साथ तो इससे भी बुरा हुआ. आजाद भारत में न जीते जी उनकी कोई पूछ रही और न ही उनकी स्मृति का कोई मोल दिखता है.
ऐसे महानुभावों को कृतज्ञ राष्ट्र हमेशा याद करता है और प्रेरणा प्राप्त करता है। ऐसे ही स्मरणीय व्यक्तित्व में शहीद भगत सिंह के साथी स्व. बटुकेश्वर दत्त का नाम सर्वोपरि है। बटुकेश्वर दत्त का त्याग और बलिदान हमेशा इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। महान क्रांतिकारियों का राष्ट्र ऋणी है।