इन घटनाओं ने वीरता को लेकर उनके बारे में गढ़े गए मिथक को मजबूत
किया. हालांकि बीते सालों में ऐसी कई जानकारियां सामने आई हैं जो इसे चूर-चूर करती
रही हैं. एक तरफ सावरकर अपने अनुयायियों को यह जताकर भरमाते रहे कि अंग्रेजों की
हत्या में उनका हाथ था, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने
इस बात का भी भरसक ध्यान रखा कि कहीं किसी हत्याकांड से उनका संबंध उजागर न हो
जाए. इसके लिए सावरकर अपने सबसे कट्टर अनुयायियों से भी पल्ला झाड़ सकते थे. गांधी
जी की हत्या करने वाला नाथूराम गोडसे भी उनका ऐसा ही अनुयायी था.
सावरकर की जिस बहादुरी की तारीफ की जाती है वह अंडमान में उनके कैद के दिनों में
भी शायद ही कहीं दिखी हो. इस दौरान वे देश नहीं बल्कि अपनी आजादी के लिए अंग्रेजों
से माफी मांगते हुए मोलभाव कर रहे थे.
पहली हत्या जिसमें सावरकर का नाम आया
एक जुलाई,
1909 में मदनलाल ढींगरा ने सर
विलियम कर्जन वाइली की लंदन में गोली मारकर हत्या कर दी थी. वाइली लंदन स्थित
इंडिया ऑफिस में सचिव स्तर के अधिकारी थे. इससे पहले ढींगरा की योजना भारत के
पूर्व वायसराय लॉर्ड कर्जन और बंगाल के पूर्व गवर्नर ब्रमफील्ड फुलर को मारने की
थी. ये दोनों लंदन में एक कार्यक्रम में शामिल होने वाले थे. लेकिन ढींगरा के
आयोजन स्थल पर देर से पहुंचने की वजह से यह योजना फेल हो गई.
बाद में फिर एक दूसरी योजना बनाकर उन्होंने वाइली को गोली मारी थी.
इसके लिए ढींगरा को फांसी की सजा हुई. अंग्रेजों को इस मामले में सावरकर पर भी शक
था लेकिन उनके खिलाफ कोई मजबूत सबूत नहीं थे. ऐसे कुछ सबूत 1966 में सावरकर की मृत्यु के बाद उजागर हो पाए. ये
सबूत उसी साल प्रकाशित हुई उनकी जीवनी में दर्ज हैं.
धनंजय कीर सावरकर के जीवनीकार थे. उनकी लिखी किताब, सावरकर एंड हिज टाइम्स 1950 में प्रकाशित हुई थी. सावरकर की मृत्यु के बाद
कीर ने इसे फिर प्रकाशित करवाया. उन्होंने दावा किया कि इसमें कई नई जानकारियों को
शामिल किया गया है जो उन्हें खुद सावरकर से मिली थीं. इस संस्करण में कीर ने लिखा
है कि वाइली की हत्या के दिन सुबह सावरकर ने ढींगरा को एक रिवाल्वर दी थी और कहा
था, ‘यदि इसबार तुम असफल हुए तो मुझे अपना चेहरा मत
दिखाना.’ कीर ने यह बात रॉबर्ट
पायने को भी बताई थी कि सावरकर ने ढींगरा को महीनों तक ट्रेनिंग दी थी और वे अक्सर
उलाहना देते थे कि ढींगरा लॉर्ड कर्जन और फुलर की हत्या करने में असफल रहे. रॉबर्ट
पायने लाइफ एंड डेथ ऑफ महात्मा
गांधी नाम की किताब के लेखक हैं.
कीर की किताब से हुए इस खुलासे के आधार पर इतिहासकार एजी नूरानी ने
अपनी किताब – सावरकर एंड हिंदुत्व : द
गोडसे कनेक्शन में तंज करते हुए लिखा है, ‘इस बात पर आश्चर्य होता है कि क्या सावरकर ने ही
यह तय किया था कि इन बातों का प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद होना चाहिए. इस बात को
स्वीकार किए बिना दो संस्करणों के बीच 16 साल के अंतराल को नहीं समझा जा सकता.’
दूसरी राजनीतिक हत्या जिससे सावरकर का संबंध
जुड़ता है
इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई के लिए रवाना होने से पहले सावरकर
मित्र मेला नाम के एक गुप्त संगठन के सदस्य थे. इसी का नाम बाद में अभिनव भारत रखा
गया. इस संगठन का लक्ष्य हिंसक तौर-तरीकों से अंग्रेजी शासन को खत्म करना था.
सावरकर के बड़े भाई गणेश उर्फ बाबाराव भी अभिनव भारत के सदस्य थे. एक बार अंग्रेज
पुलिस ने छापेमारी के दौरान उनको हिरासत में लिया तो उनके पास से बमों का जखीरा
बरामद हुआ था. इसके लिए उन्हें आठ जून, 1909 को कालापानी की सजा सुनाई गई थी.
गणेश के साथियों ने इसका बदला लेने की योजना बनाई. इन्हीं में से
एक अनंत कन्हेरे ने 29 दिसंबर, 1909 को एएमटी जैक्सन को गोली मार दी. जैक्सन नासिक
के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे और उन्हीं की अदालत में गणेश के मुकदमे की सुनवाई
हुए थी. हालांकि उन्होंने गणेश को अंडमान भेजने की सजा नहीं सुनाई थी. यह फैसला
दूसरे जज का था.
इस हत्याकांड के तुरंत बाद घटनास्थल से ही कन्हेरे को गिरफ्तार कर
लिया गया. उनके दो और साथी इस मामले में गिरफ्तार हुए और इनके पास से सावरकर के
पत्र बरामद हुए थे. सावरकर पर आरोप लगा कि उन्होंने इस हत्या में इस्तेमाल की गई
ब्राऊनिंग पिस्टल और उस जैसी 20
और पिस्टल इंग्लैंड से
भारत भिजवाई थीं. इसी के आधार पर टेलिग्राफ से सावरकर के नाम एक वारंट लंदन भेजा
गया. सावरकर ने 13 मार्च, 1910 को आत्मसमर्पण कर दिया. फिर उन्हें भारत लाया
गया.
जैक्सन की हत्या और अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह के आरोप में
सावरकर को भी दो बार की कालापानी की सजा सुनाई गई. यानी उन्हें कुल 50 साल अंडमान की जेल में रहना था. सावरकर चार
जुलाई, 1911 को पोर्ट ब्लेयर पहुंचे
थे.
सावरकर का माफी मांगना
इसमें कोई दोराय नहीं कि अंडमान की सेल्यूलर जेल में हालात भयावह
थे. जानवरों को जिस तरह कोल्हू में जोता जाता है, सावरकर को उसी तरह तेल मिल में काम पर लगाया गया. यह बर्बर सजा थी
हालांकि वे अकेले व्यक्ति नहीं थे जिसे इस काम में लगाया गया हो. 1911 में उन्होंने खुद ही सरकार के सामने दया याचिका
लगा दी. इस दया याचिका में क्या लिखा गया था आज उसकी जानकारी मौजूद नहीं है लेकिन
जब उन्होंने 14 नवंबर, 1913 को दूसरी याचिका भेजी तो इसमें पहली याचिका का
जिक्र किया गया था. अपने ऊपर दया करने की गुहार लगाते हुए उन्होंने अंग्रेज सरकार
से खुद को भारत में स्थित किसी जेल में भेजे जाने की प्रार्थना की थी. इसके बदले
में उन्होंने प्रस्ताव दिया था कि जिस तरह भी संभव होगा वे सरकार के लिए काम
करेंगे. सावरकर का कहना था कि अंग्रेजों द्वारा उठाए गए सुधारात्मक कदमों से उनकी
संवैधानिक व्यवस्था में आस्था पैदा हुई है. ऐसा कहते हुए उन्होंने घोषणा की थी कि
वे अब हिंसा पर यकीन नहीं करते.
इस दया याचिका में सावरकर का यह भी कहना था कि संवैधानिक व्यवस्था
में उनकी आस्था भारत और दूसरी जगहों पर रह रहे उन भटके हुए युवाओं को मुख्यधारा
में ले आएगी जो उनको अपना मार्गदर्शक मानते हैं. यह लिखते हुए सावरकर ने एक झटके
में ही भारत के क्रांतिकारी आंदोलन को छोड़ दिया था.
अंग्रेज सरकार को इस अर्जी पर बिल्कुल भरोसा नहीं हुआ लेकिन इसकी
वजह से जेल में उनकी स्थिति थोड़ी सुधर गई. इसके बाद उन्हें फोरमैन की जिम्मेदारी
दे दी गई.
सावरकर जेल में कैदियों का भड़काने का काम भी करते थे लेकिन खुद उनके साथ खड़े
नहीं होते थे. इतिहासकार आरसी मजूमदार सावरकर के साथ जेल में रहे त्रैलोक्यनाथ
चक्रवर्ती के हवाले से लिखते हैं कि सावरकर ने उन्हें और दूसरे कैदियों को
भूख-हड़ताल करने के लिए उकसाया था लेकिन खुद उन्होंने और उनके भाई ने इसमें हिस्सा
नहीं लिया. वह भी तब जबकि सावरकर से ज्यादा उम्र के कैदी भूख हड़ताल कर रहे थे.
सावरकर अपने फैसले को यह कहकर जायज ठहराते थे कि इसकी वजह से उन्हें कालकोठरी में
डाल दिया जाएगा और भारत में पत्र भेजने का अधिकार छीन लिया जाएगा. इन घटनाओं के
आधार पर सावरकर ऐसे नेता के रूप में उभरते हैं जो तब तक क्रांति का समर्थन करता है
जब तक कि उसे खुद इसकी कीमत न चुकानी पड़े.
सावरकर की मुख्यभूमि में वापसी
मई, 1921 में सावरकर को अंडमान से
मुख्यभूमि (भारत) भेज दिया गया. वे अब यहां पुणे की यरवदा जेल में थे. तीन साल बाद
सरकार ने उनके सामने रिहाई के लिए कुछ शर्तें रखीं. ये शर्तें थीं – सावरकर को रत्नागिरी जिले में ही रहना होगा; बिना सरकारी अनुमति के वे जिले से बाहर नहीं जा सकते; वे निजी या सार्वजनिक रूप से राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं ले
सकते; ये शर्तें पांच साल के लिए थीं और इस समयावधि के
बाद इन्हें दोबारा लगाया जा सकता था.सावरकर ने ये शर्तें मान ली थीं, यह तथ्य खुद-ब-खुद ही उन्हें वीर कहे जाने के मिथक को तोड़ने के
लिए पर्याप्त है. हालांकि बात यहीं पूरी नहीं होती. इसी घटना से जुड़ा एक तथ्य और
है - इन शर्तों को मानने के साथ सावरकर ने अपनी तरफ से सरकार को एक शपथपत्र भी
दिया था. फ्रंटलाइन पत्रिका के 1995
के एक अंक के मुताबिक
सावरकर ने इस शपथपत्र में घोषणा की थी कि उनके मुकदमे की निष्पक्ष सुनवाई हुई थी
और उन्हें उचित सजा मिली थी. इसमें वे लिखते हैं, ‘मैं बीते सालों में हिंसा की जिन गतिविधियों लिप्त रहा अब पूरे
हृदय से उनसे घृणा करता हूं और मुझे लगता है कि कानून और संविधान का पालन करना
मेरा कर्तव्य है...’
निरंजन तकले बताते हैं, "सावरकर ने वायसराय लिनलिथगो के साथ लिखित समझौता किया था कि उन दोनों का समान उद्देश्य है गाँधी, कांग्रेस और मुसलमानों का विरोध करना है."
"अंग्रेज़ उनको पेंशन दिया करते थे, साठ रुपए महीना. वो अंग्रेज़ों की कौन सी ऐसी सेवा करते थे, जिसके लिए उनको पेंशन मिलती थी ? वो इस तरह की पेंशन पाने वाले अकेले शख़्स थे."
हिंदुत्ववादियों ने अंग्रेज़ शासकों
के समक्ष मुकम्मल समर्पण कर दिया था जो ‘वीर’ सावरकर के निम्न वक्तव्य से और भी
साफ हो जाता है-
‘जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध
संबंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब
तक यह हिंदू हितों के फ़ायदे में हो. हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना
चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले
कारख़ानों वगै़रह में प्रवेश करना चाहिए…
ग़ौरतलब है कि युद्ध में जापान के
कूदने कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं. इसलिए हम
चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के क़हर से अपने परिवार
और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताक़त
पहुंचा कर ही किया जा सकता है. इसलिए हिंदू महासभाइयों को ख़ासकर बंगाल और असम के
प्रांतों में, जितना असरदार तरीक़े से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती
होने के लिए प्रेरित करना चाहिए.’
सरकार के सामने लगातार झुकते रहे
1925 में पंजाब में ‘रंगीला रसूल’
नाम से एक किताब प्रकाशित
हुई थी. इस किताब में पैगंबर मोहम्मद के बारे में कई आपत्तिजनक बातें थीं जिस वजह
से वहां तनाव का माहौल बन गया था. सावरकर ने मार्च, 1925 में इस पर अखबार में एक भड़काऊ आलेख लिखा था. इसके बाद सरकार ने उन
तक यह संदेश भिजवा दिया कि यदि उन्होंने फिर ऐसा कुछ लिखा तो उनकी रिहाई पर
पुनर्विचार हो सकता है. इस आलेख में ‘स्वराज’ का भी जिक्र किया गया था. सरकार की चेतावनी के जवाब में सावरकर ने
एक लंबा पत्र लिखा. इसमें स्पष्ट किया गया था कि उनके लिखे स्वराज का वह मतलब नहीं
है जो समझा गया. इसके साथ ही उन्होंने सरकार का आभार माना कि उसने उन्हें अपना
पक्ष रखने का मौका दिया.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू अपने एक लेख में लिखते हैं, ‘कई लोग मानते हैं कि सावरकर एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे. लेकिन सच क्या है?
सच ये है ब्रिटिश राज के दौरान कई राष्ट्रवादी गिरफ्तार किए गए. जेल में ब्रिटिश अधिकारी उन्हें प्रलोभन देते थे कि या वे उनके साथ मिल जाएं या पूरी ज़िंदगी जेल में बिताएं. तब कई लोग ब्रिटिश शासन का सहयोगी बन जाने के लिए तैयार हो जाते थे. इसमें सावरकर भी शामिल हैं.’
जस्टिस काटजू कहते हैं, ‘दरअसल, सावरकर केवल 1910 तक राष्ट्रवादी रहे. ये वो समय था जब वे गिरफ्तार किए गए थे और उन्हें उम्र कैद की सज़ा हुई. जेल में करीब दस साल गुजारने के बाद, ब्रिटिश अधिकारियों ने उनके सामने सहयोगी बन जाने का प्रस्ताव रखा जिसे सावरकर ने स्वीकार कर लिया. जेल से बाहर आने के बाद सावरकर हिंदू सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने का काम करने लगे और एक ब्रिटिश एजेंट बन गए. वह ब्रिटिश नीति ‘बांटो और राज करो’ को आगे बढ़ाने का काम करते थे.’
जस्टिस काटजू लिखते हैं, ‘दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे. उन्होंने तब इस नारे को बढ़ावा दिया, ‘राजनीति को हिंदू रूप दो और हिंदुओं का सैन्यीकरण करो’. सावरकर ने भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा युद्ध के लिए हिंदुओं को सैन्य प्रशिक्षण देने की मांग का भी समर्थन किया. इसके बाद जब कांग्रेस ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की तो सावरकर ने उसकी आलोचना की. उन्होंने हिंदुओं से ब्रिटिश सरकार की अवज्ञा न करने को कहा. साथ ही उन्होंने हिंदुओं से कहा कि वे सेना में भर्ती हों और युद्ध की कला सीखें. क्या सावरकर सम्मान के लायक हैं और उन्हें स्वतंत्रता सेनानी कहा जाना चाहिए? सावरकर के बारे में ‘वीर’ जैसी बात क्यों? वह तो 1910 के बाद ब्रिटिश एजेंट हो गए थे.’
तीसरी राजनीतिक हत्या जिससे सावरकर का नाम जुड़ा
22 जुलाई, 1931 को बंबई के प्रभारी गवर्नर सर अर्नेस्ट हॉट्सन
पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में आए थे. इसी दौरान वीबी गोगाटे ने उनपर दो गोलियां दागीं
लेकिन किस्मत से वे बच गए. सावरकर का संबंध हत्या की इस कोशिश से भी जोड़ा जाता
है. हालांकि उस समय इस मामले में उनका नाम नहीं आया था लेकिन कीर ने 1966 में सावरकर पर जो किताब प्रकाशित की थी उसके
मुताबिक गोगाटे सावरकर का कट्टर अनुयायी था और हॉटसन पर हमले के पहले वह सावरकर से
मिल चुका था. इस बात के जरिए क्या कीर यह कहना चाहते थे कि हत्या की इस कोशिश के
पीछे भी सावरकर का हाथ था?
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30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को गोली मार दी थी- इमेज कॉपीरइट Keystone/Getty Images |
महात्मा गांधी की हत्या में सावरकर की भूमिका
महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी, 1948 को हुई थी और सावरकर को
पांच फरवरी को हिरासत में ले लिया गया था. 17 दिन बाद उन्होंने बंबई के पुलिस आयुक्त को एक पत्र लिखा था. इसमें
वे लिखते हैं, ‘यदि मुझे रिहा कर दिया
जाता है तो सरकार जब तक चाहेगी मैं सांप्रदायिक और राजनीतिक गतिविधियों से खुद को
दूर रखूंगा.’ यह एक गैरजरूरी प्रस्ताव
था जिसने गांधी जी की हत्या में सावरकर की भूमिका पर शक को और गहरा कर दिया.
हालांकि अदालत में इसे साबित नहीं किया जा सका. वहीं सावरकर की मृत्यु के कई सालों
बाद इस मामले में भी उनकी भूमिका स्पष्ट हुई थी.
जनवरी, 1948 में गांधी जी की हत्या की
दो कोशिशें हुई थीं. पहली बार एक पंजाबी शरणार्थी मदनलाल पाहवा ने 20 जनवरी को उन्हें मारने की साजिश की थी लेकिन वह असफल रहा. दूसरी कोशिश नाथूराम गोडसे की थी
जिसमें इन लोगों को सफलता मिल गई थी.
गांधी जी की हत्या के मामले में आठ आरोपित थे – नाथूराम गोडसे और उनके भाई गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे,
विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा,
शंकर किष्टैया, विनायक दामोदर सावरकर और दत्तात्रेय परचुरे. इस गुट का नौवां सदस्य
दिगंबर रामचंद्र बडगे था जो सरकारी गवाह बन गया था. अदालत में दी गई बडगे की गवाही
के आधार पर ही सावरकर का नाम इस मामले से जुड़ा था.
बडगे ने इसमें बताया था कि वह गोडसे और आप्टे के साथ दो बार बंबई में सावरकर सदन
गया था. इस भवन की दूसरी मंजिल पर सावरकर रहते थे. ये लोग पहली बार 14 जनवरी को वहां पहुंचे थे. इसी दिन बडगे ने गोडसे
और आप्टे को दो गन-कॉटन (पलीता),
पांच हैंडग्रेनेड और
डिटोनेटर दिए थे. बडगे उस दिन सावरकर सदन के अंदर नहीं गया था. लेकिन आप्टे ने उसे
बताया था कि उनकी और गोडसे की सावरकर से मुलाकात हुई है और सावरकर ने कहा है कि
गांधी और नेहरू को ‘खत्म’ होना चाहिए. आप्टे के मुताबिक सावरकर ने यह जिम्मेदारी उन दोनों को
सौंपी थी.
ये लोग दूसरी बार 17 जनवरी को सावरकर सदन पहुंचे थे. इस बार बडगे भी सदन के अंदर गया
था. गोडसे और आप्टे दूसरी मंजिल पर सावरकर से मिलने चले गये. बडगे के मुताबिक 10 मिनट बाद जब वे सीढ़ियों से उतर रहे थे तो उसने
सावरकर को उनसे मराठी में यह कहते सुना ‘तुम्हें सफलता मिले और
तुम वापस लौटो’. हालांकि बडगे ने यह कहते
हुए सावरकर को देखा नहीं था.
ट्रायल कोर्ट के जज आत्माचरण के मुताबिक बडगे ‘सच्चा गवाह’ था लेकिन उन्होंने सावरकर
को इस मामले में बरी कर दिया क्योंकि अदालत में बडगे की बयानों की कड़ियां जोड़ने
वाले सबूत पेश नहीं किए जा सके.
इसकी एक वजह यह भी थी कि गोडसे और दूसरे लोगों ने भरसक कोशिश की थी
कि उनके मार्गदर्शक का नाम इस हत्याकांड में न आए. उदाहरण के लिए गोडसे ने सावरकर
से अपना संबंध वैसा ही बताया जैसा एक नेता और उसके अनुयायी का होता है. गोडसे का
कहना था कि उन्होंने और उनके साथियों ने, ‘1947 में ही वीर सावरकर के नेतृत्व को छोड़ दिया था और उनसे भविष्य की
योजनाओं-नीतियों पर सलाह लेना बंद कर दिया था... मैं दोबारा यह कहना चाहता हूं कि
यह बात सही नहीं हैं कि वीर सावरकर को मेरी गतिविधियों के बारे में कोई जानकारी थी
और जिन पर आगे बढ़ते हुए मैंने गांधी जी की हत्या की.’
मुकदमे के दौरान अभियोजन पक्ष लगातार इस बात पर जोर देता रहा कि गोडसे और आप्टे
सावरकर के प्रति समर्पित रहे हैं. वहीं सावरकर अपनी आदत के अनुसार इन दोनों से
पल्ला झाड़ते रहे. उनका कहना था कि कई अपराधी अपने गुरुओं और मार्गदर्शकों के
प्रति काफी सम्मान दिखाते हैं लेकिन क्या जिन लोगों ने अपराध किया है उनकी निष्ठा
के आधार पर गुरुओं और मार्गदर्शकों को उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जा सकता है?
सावरकर के इस वक्तव्य से गोडसे काफी आहत हुआ था. इस बात की पुष्टि
पीएल ईनामदार करते हैं जिन्होंने इस मामले में गोपाल गोडसे की पैरवी की थी. वे एक
स्थान पर लिखते हैं, ‘कालकोठरी में नाथूराम, तात्याराव (सावरकर) के हाथ के स्पर्श, सहानुभूति के दो बोल या कम से कम स्नेह भरी एक नजर के लिए तड़पता
था. नाथूराम से मेरी अंतिम मुलाकात के दौरान भी उसने इस संदर्भ में अपनी आहत
भावनाओं के बारे में चर्चा की थी...’
सावरकर के खिलाफ कुछ नए सबूत
गोपाल गोडसे की सजा पूरी होने के बाद उसे अक्टूबर, 1964 में रिहा कर दिया गया. उसकी रिहाई का उत्सव
मनाने के लिए 11 नवंबर, 1964 को पुणे में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था.
इसमें तरुण भारत अखबार के संपादक जीवी केतकर भी मौजूद थे. यहां केतकर का कहना था
कि नाथूराम गोडसे उनसे अक्सर गांधी की हत्या के फायदों के बारे में चर्चा करता
रहता था.
केतकर के इस इस खुलासे से पूरे देश में हलचल मच गई. संसद में भी इसपर खूब
हल्ला-गुल्ला मचा और आखिरकार सरकार ने मार्च, 1965 जस्टिस जेएल कपूर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन कर दिया. आयोग
को यह पता लगाना था कि क्या महात्मा गांधी की हत्या की साजिश काफी पहले रची गई थी
और क्या सरकार को इस बारे में पहले से कोई जानकारी मिली थी.
आयोग गठित होने के कुछ महीनों बाद ही सावरकर ने स्वेच्छा से
खाना-पीना बंद करके अपने प्राण त्याग दिये. उनका कहना था कि किसी व्यक्ति के जीवन
का मिशन खत्म होने के बाद यह बेहतर है कि वह स्वेच्छा से प्राण त्याग दे. यहां
सवाल उठाया जा सकता है कि क्या सावरकर ने यह कदम आयोग की जांच में अपना नाम आने और
अपने जीवन के इस अंतिम चरण में अपमानित होने की आशंका से बचने के लिए उठाया था?
इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब नहीं दिया जा सकता. पर सावरकर के ऐसा करने
से शायद उनके सुरक्षाकर्मी अप्पा रामचंद्र कसर और उनके सचिव विष्णु डामले को यह आजादी
जरूर मिल गई थी कि वे आयोग के सामने अपनी सही गवाही दर्ज करवा सकें. इन दोनों ने
इस बात की पुष्टि की कि गोडसे और आप्टे सावरकर के काफी करीबी थे और यहां तक कि ये
लोग एक साथ हिंदू महासभा की बैठकों में भी भाग लेने जाया करते थे. आयोग को
उन्होंने यह जानकारी भी दी कि विष्णु करकरे एक पंजाबी शरणार्थी लड़के (मदनलाल
पाहवा) को जनवरी, 1948 के पहले हफ्ते में सावरकर
से मिलाने लाया था और इन दोनों के बीच में तकरीबन 30-45 मिनट तक बातचीत हुई थी.
1967 में गोपाल गोडसे ने एक
किताब लिखी थी – गांधी हत्या, अणि मी (गांधी की हत्या और मैं). इसमें उसने जानकारी दी थी कि
नाथूराम गोडसे सावरकर को 1929
में तब से जानता था जब
सावरकर रत्नागिरी में रह रहे थे. इस किताब के मुताबिक नाथूराम गोडसे और सावरकर का
रोजाना मेलजोल होता था.
इन बयानों और सूचनाओं के आधार पर जस्टिस कपूर का निष्कर्ष था कि ये सभी तथ्य एक
साथ रखे जाएं तो यह बात स्पष्ट होती है कि गांधी जी की हत्या के पीछे सावरकर और
उनके संगठन का ही हाथ था.
जिस तरह से सावरकर, गोडसे और आप्टे का करीबी
संबंध था, ऐसे में क्या मुमकिन है
कि इन लोगों ने अपने मार्गदर्शक को गांधी जी की हत्या की योजना के बारे में न
बताया हो? 2011 में प्रकाशित किताब
हिस्टरी एंड द मेकिंग ऑफ मॉडर्न हिंदू सेल्फ में इसका एक जवाब मिलता है. यह किताब
अपर्णा देवारे ने लिखी है. इसमें उन्होंने अपने एक बुजुर्ग रिश्तेदार डॉ अच्युत
फड़के का जिक्र किया है जिन्हें नारायण आप्टे ने हाई स्कूल में फिजिक्स पढ़ाई थी.
फड़के ने देवारे को बताया था कि आप्टे गांधी की हत्या की अपनी और गोडसे की योजना
के बारे में खुलेआम चर्चा करता था. यह बड़ी ही विचित्र बात है कि जो बात ये लोग
स्कूल के बच्चों के सामने कर रहे थे भला वो उन्होंने सावरकर से क्यों छिपाई होगी.
शम्सुल इस्लाम वीर सावरकर के
हिंदुत्व की चर्चा करते हुए लिखते हैं, ‘वास्तव में आरएसएस ‘वीर’ सावरकर द्वारा निर्धारित विचारधारा
का पालन करता है. यह कोई राज़ नहीं है कि ‘वीर’ सावरकर अपने पूरे जीवन में जातिवाद
और मनुस्मृति की पूजा के एक बड़े प्रस्तावक बने रहे. ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की इस प्रेरणा के अनुसार- ‘मनुस्मृति एक ऐसा धर्मग्रंथ है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए
वेदों के बाद सर्वाधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति
रीति-रिवाज, विचार तथा आचरण का आधार हो गया है.
सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक एवं दैविक अभियान को
संहिताबद्ध किया है. आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन तथा आचरण में जिन नियमों का
पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं. आज
मनुस्मृति हिंदू विधि है.’
ऐसी गतिविधियों में लिप्त और दया की
मांग करता हुआ ऐसा माफ़ीनामा डालने वाले सावरकर वीर कैसे कहे जा सकते हैं, जिन्होंने सुभाष चंद्र बोस के उलट
अंग्रेज़ी फ़ौज के लिए भारतीयों की भर्ती में मदद की? सावरकर का योगदान यही है कि
उन्होंने भारत में हिंदुत्व की वह विचारधारा दी जो लोकतंत्र के उलट एक धर्म के
वर्चस्व की वकालत करती है.
जेल से बाहर रहने के लिए बनाई थी
ये रणनीति
बाद में सावरकर ने खुद और उनके समर्थकों ने
अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगने को इस आधार पर सही ठहराया था कि ये उनकी रणनीति का
हिस्सा था, जिसकी वजह से उन्हें कुछ
रियायतें मिल सकती थीं.
सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, "अगर मैंने जेल में हड़ताल की होती तो मुझसे भारत
पत्र भेजने का अधिकार छीन लिया जाता."
मैंने वरिष्ठ पत्रकार और इंदिरा गांधी सेंटर ऑफ़
आर्ट्स के प्रमुख राम बहादुर राय से पूछा कि आख़िर भगत सिंह के पास भी माफ़ी
माँगने का विकल्प था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं
किया. तब सावरकर के पास ऐसा करने की क्या मजबूरी थी?
राम बहादुर राय का जवाब था, "भगत सिंह और सावरकर में बहुत मौलिक अंतर है. भगत
सिंह ने जब बम फेंकने का फ़ैसला किया, उसी दिन उन्होंने तय कर
लिया था कि उन्हें फाँसी का फंदा चाहिए. दूसरी तरफ़ वीर सावरकर एक चतुर क्रांतिकारी
थे."
"उनकी कोशिश रहती थी कि भूमिगत रह करके उन्हें काम करने का जितना मौका
मिले, उतना अच्छा है. मेरा मानना ये है कि सावरकर इस
पचड़े में नहीं पड़े की उनके माफ़ी मांगने पर लोग क्या कहेंगे. उनकी सोच ये थी कि
अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे."
सावरकर की हिंदुत्व की अवधारणा
अंडमान से वापस आने के बाद सावरकर ने एक पुस्तक
लिखी 'हिंदुत्व - हू इज़ हिंदू?' जिसमें उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर
पर इस्तेमाल किया.
निलंजन मुखोपाध्याय बताते हैं, "हिंदुत्व को वो एक राजनीतिक घोषणापत्र के तौर पर
इस्तेमाल करते थे. हिंदुत्व की परिभाषा देते हुए वो कहते हैं कि इस देश का इंसान
मूलत: हिंदू है. इस देश का नागरिक वही हो सकता है जिसकी पितृ भूमि, मातृ भूमि और पुण्य भूमि यही हो."
"पितृ और मातृ भूमि तो किसी की हो सकती है, लेकिन पुण्य भूमि तो सिर्फ़ हिंदुओं, सिखों, बौद्ध और जैनियों की हो हो
सकती है, मुसलमानों और ईसाइयों की तो
ये पुण्यभूमि नहीं है. इस परिभाषा के अनुसार मुसलमान और ईसाई तो इस देश के नागरिक
कभी हो ही नहीं सकते."
"एक सूरत में वो हो सकते हैं अगर वो हिंदू बन जाएं. वो इस विरोधाभास
को कभी नही समझा पाए कि आप हिंदू रहते हुए भी अपने विश्वास या धर्म को मानते
रहें."
सावरकर के प्रति भाजपा का
प्यार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व के जिस राजनीतिक दर्शन को आगे
बढ़ाना चाहता है सावरकर उसके जनक हैं इसीलिए वह सावरकर के साहस से जुड़े मिथक को
इतना बढ़ा-चढ़ाकर बताता है. संघ के लिए यह बात मायने नहीं रखती कि सावरकर ने किस
तरह अपने कट्टर अनुयायियों से पल्ला झाड़ लिया था या फिर वे किस तरह अंग्रेज सरकार
को माफीनामे भेज रहे थे.
सावरकर की राजनीतिक विचारधारा
सावरकर के जीवन के आख़िरी दो दशक राजनीतिक एकाकीपन और अपयश में बीते.
उनके एक और जीवनीकार धनंजय कीर उनकी जीवनी 'सावरकर एंड हिज़ टाइम्स' में लिखते हैं कि लाल किले में चल रहे मुक़दमें में जज ने जैसे ही उन्हें बरी किया और नथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फाँसी की सज़ा सुनाई, कुछ अभियुक्त सावरकर के पैर पर गिर पड़े और उन्होंने मिल कर नारा लगाया,
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कभी न होगा पाकिस्तान
राम बहादुर राय कहते हैं, "दरअसल उन पर आख़िरी दिनों में जो कलंक लगा है, उसने सावरकर की विरासत पर अंधकार का बादल डाल दिया है. दुनिया में शायद ही कोई ऐसा उदाहरण मिले जो क्राँतिकारी कवि भी हो, साहित्यकार भी हो और अच्छा लेखक भी हो."
"अंडमान की जेल में रहते हुए पत्थर के टुकड़ों को कलम बना कर जिसने 6000 कविताएं दीवार पर लिखीं और उनकी कंठस्थ किया. यही नहीं पाँच मौलिक पुस्तकें वीर सावरकर के खाते में हैं, लेकिन इसके बावजूद जब सावरकर महात्मा गांधी की हत्या से जुड़ जाते हैं, सावरकर समाप्त हो जाते हैं और उनकी राजनीतिक विचारधारा वहीँ सूख भी जाती है."
'पोलराइज़िग फ़िगर'
1966 में अपनी मृत्यु के कई दशकों बाद भी भारतीय राजनीति में वीर सावरकर एक 'पोलराइज़िग फ़िगर' है. या तो वो आपके हीरों हैं या विलेन.
निरंजन तकले कहते हैं, "साल 2014 में संसद के सेंट्रल हॉल में जब नरेंद्र मोदी सावरकर के चित्र को सम्मान देने वहाँ पहुंचे तो उन्होंने अनजाने में अपनी पीठ महात्मा गांधी की तरफ़ कर ली, क्योंकि गाँधीजी का चित्र उनके ठीक सामने लगा था."
"ये आज की राजनीति की वास्तविकता है. अगर आपको सावरकर को सम्मान देना है तो आपको गाँधी की विचारधारा की तरफ़ पूरी तरह से पीठ घुमानी ही पड़ेगी. अगर आपको गांधी को स्वीकारना है तो आपको सावरकर की विचारधारा को नकारना होगा. शायद सही वजह है कि सावरकर अभी भी भारत में एक 'पोलराइज़िंग फ़िगर